पुरुष सहकर्मियों को 'कुन' कहकर बुलाना बंद करें ─ संबोधन कैसे मूल्यांकन और संबंधों को टेढ़ा कर देता है
प्रस्तावना
“पुरुष अधीनस्थों को -कुन, महिला अधीनस्थों को -सान।”
जिन्होंने जापानी कंपनी जीवन देखा है, उन्होंने यह वाक्यांश अनगिनत बार सुना होगा। मुझे हमेशा यह असहज लगा।
क्यों “निचले दर्जे के पुरुष” ही -कुन पर अटके रहते हैं? यह ध्वनि किसी न किसी तरह “अपरिपक्व” या “निम्न” का संकेत दे देती है। चाहे व्यक्ति चाहे या न चाहे, यह संबोधन संबंधों को टेढ़ा करता है। और वह टेढ़ापन मूल्यांकन और भरोसे दोनों में रिस जाता है।
इस लेख में, मैं अपने अनुभव और समकालीन दृष्टिकोणों के आधार पर “कुन-संस्कृति” की समस्या खोल रहा हूँ। अब इसे बदलने का समय है।
इस संस्कृति की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
“पुरुष = -कुन, महिला = -सान” की रीत कहाँ से आई?
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के जापान में स्कूलों और क्लबों ने यह प्रचलन फैलाया। लड़कों को -कुन कहो, लड़कियों को -सान। वही विभाजन सीधे कार्यस्थलों में आ बैठा।
बचपन में जो “कुन = साथी, सान = विनम्र संबोधन” की भावना थी, वह वयस्क होने तक टिक गई। जबकि समाज बदल चुका है। लैंगिक समानता बढ़ी, भूमिका और क्षमता लिंग से नहीं तय होती। फिर भी संबोधन पुरानी आदत पर अटका है।
जापानी सम्मानसूचक शब्दों से परिचित नहीं हैं? -सान एक तटस्थ सम्मानसूचक है—अंग्रेज़ी के “Mr./Ms.” जैसा। -कुन परंपरागत रूप से लड़कों, पुरुष अधीनस्थों या घनिष्ठ सहकर्मियों के लिए होता है और हल्की “जूनियर” ध्वनि देता है। पुरुषों को -कुन और महिलाओं को -सान कहना सूक्ष्म रूप से पदानुक्रम दर्ज करता है।
संबोधन की अनदेखी शक्ति
संबोधन सिर्फ लेबल नहीं, शब्दों में शक्ति होती है।
पुरुष अधीनस्थों को -कुन कहना, अनजाने में -सान को “सम्मानजनक मानक” और -कुन को “मेरे पंखों के नीचे” ठहराता है। पहली नज़र में मामूली लगता है, पर यह कार्यालय का माहौल तिरछा कर देता है।
- सत्ता-ढाँचे का स्थिरीकरण: संबोधन का अंतर नेता और अधीनस्थ के बीच दूरी को जड़ बना देता है।
- हैरासमेंट की मिट्टी: “घर का बच्चा” या “बेटा” जैसा भाव पैदा होता है और बिना सोचे-समझे प्रभुत्व जमाने का बहाना मिल जाता है।
- “○○कुन = हमारा लड़का, ○○सान = जल्द जा सकती बाहरी महिला”—यह पुराना नज़रिया चुपचाप जीवित रहता है।
संबोधन रोज़ का व्यवहार है, इसलिए उसका प्रभाव गहराई तक धँसता है और पहचानना कठिन होता है। ऊपर से, हम निश्चित ही वरिष्ठ पुरुषों को “सान” कहते हैं।
साफ़ कहूँ तो आज के युग में यह तय नहीं कि कब कनिष्ठ या जूनियर ही आपका बॉस बन जाए। वास्तव में ऐसे प्रबंधक दुर्लभ नहीं रहे जिनके अधीन वरिष्ठ आयु वाले लोग हों।
इस माहौल में जूनियर को “कुन” और वरिष्ठ को “सान” कहना किसी का भला नहीं करता। जिस व्यक्ति को आप “○○कुन” कहते थे, वह बॉस बनते ही क्या “○○सान” हो जाएगा?
मैंने ऐसे मध्यवयस्कों को देखा है। कंपनी-विशेष रैंक के आगे झुक कर संबोधन बदलना ऐसा लगता है मानो स्कूल के नए नियमों से घबराया विद्यार्थी हो।
अगर हम शुरुआत से ही हर व्यक्ति को सम्मान दें तो ऐसी परिस्थिति आए भी तो न शर्म आएगी न अपमान।
मेरा अनुभव — “सान” कहकर देखना
करीब दस साल पहले मैंने तय किया कि पुरुष अधीनस्थों को भी “सान” से संबोधित करूँगा। शुरुआत में थोड़ी अटपटाहट थी, लेकिन जल्दी ही फर्क महसूस हुआ।
- भीतर ही भीतर उनके प्रति सम्मान स्वतः पनपा।
- दूरी कम हुई, संवाद सहज हुआ।
- बेकार की प्रभुत्व-प्रदर्शनी कम हुई, भरोसा बनाना आसान हुआ।
- महिलाओं को “सान” और पुरुषों को “कुन” कहने का बहाना ढूँढने की जरूरत खत्म हुई।
हैरानी इस बात की थी कि मेरा नजरिया भी बदला। संबोधन बदलते ही देखने का कोण बदल जाता है। यह सिर्फ शिष्टाचार नहीं, संगठन संस्कृति को बदलने का छोटा प्रयोग है।
आज का समाज और संबोधन का अपडेट
डायवर्सिटी और इंक्लूज़न की बात हो रही है, ऐसे में “पुरुष = कुन, महिला = सान” साफ़ तौर पर बीते युग की बात है।
अंग्रेज़ी में भी Mr./Ms. जैसे संबोधन हैं, लेकिन आधुनिक व्यापार में पहले नाम से बुलाना सामान्य होता जा रहा है। ब्रिटेन ने 2015 में लैंगिक रूप से न्यूट्रल Mx. (मिक्स/मक्स) जैसा संबोधन भी अपनाया। रुझान स्पष्ट है: जिसे भी संबोधित करें, वही सम्मान।
यह पुरुषों को “घर का लड़का” मान कर मनमानी करने से रोकता है और महिलाओं को “बाहर की” मानने की सोच भी तोड़ता है। नतीजा—हैरासमेंट घटता है, काम का माहौल सुधरता है, और युवा कर्मचारियों की भागीदारी बढ़ती है।
प्रस्ताव — सबको “सान” कहें
निष्कर्ष सीधा है।
- पुरुष हों या महिला, हर अधीनस्थ को “सान” से संबोधित करें।
- नियम लिखने से पहले यह स्पष्ट करें कि “हर व्यक्ति को बराबर सम्मान” हमारी बुनियाद है।
संबोधन छोटा-सा काम है, पर यह संस्कृति और रिश्तों को गढ़ता है। अरस्तू ने कहा था—बार-बार किया गया आचरण ही आदत बनता है और आदत चरित्र।
कुन-संस्कृति को छोड़कर सर्व-मान्य “सान” अपनाना कार्यस्थल को स्वस्थ बनाता है और हमें स्वयं ऐसे व्यक्तित्व की ओर ले जाता है जो सबका सम्मान कर सके।
निष्कर्ष
संबोधन वह अदृश्य ताकत है जो रिश्तों को आकार देती है। पुरुष अधीनस्थों को -कुन कहना मूल्यांकन और संबंधों को तिरछा करता है और लैंगिक समानता की दृष्टि से भी पिछड़ा है।
छोटी असहजता को नजरअंदाज न करें—पहला कदम संबोधन से शुरू करें। यही कदम सम्मान और भरोसे वाली संस्कृति की नींव रख सकता है।
शायद जिन्हें “सान” कहना नया लगे, शुरुआत में झिझकें। लेकिन जल्द ही महसूस होगा कि “मैं अपने आप को कितना बड़ा समझ रहा था”। जब हम खुद को विनम्र नजर से देखने लगते हैं तो नुकसान नहीं, फायदा ही होता है।
“सिर्फ कनिष्ठ पुरुष = कुन” वाली संस्कृति अब खत्म करें। अगले दौर का मानक है—हर किसी को “सान” कहें।